Saturday, April 6, 2013

संघ से सत्ता तक हिंदुत्व !!!!!!!!!!!!!!!

अनंत काल से हिन्दू एक ही बात से विचलित है की पूरी दुनिया में इसाई भी है, मुस्लिम भी है और अब तो यहुदियो का देश भी हो गया है। आखिर हिन्दू दिन रात देश को, समाज को, स्वयम को ही क्यूँ कोसता रहता है की हिन्दुओ को वो विशेषाधिकार नहीं जो अन्य धर्मावलम्बियो को है।  क्यूँ नहीं एक देश जो हिन्दुओ को महत्व देता हो, हिन्दू संस्कृति राष्ट्र की रीड हो, जहाँ पर धर्म और राष्ट्र एक रूप में हो। हिन्दू आराध्यो का मान सामान हो। 
  
अब यह तो स्वाभाविक ही है की जब मूर्त रूप में देव ज्यादा होंगे तो उनकी पूजा पद्दत्ति भी भिन्न होगी, जैसे की विष्णु जी और शिव की अलग है देवी की श्री गणेश जी की अलग है। यदि सभी देवो को एक माना जाये तो उसके लिए मनुष्य को ज्ञान ही बढ़ाना पड़ेगा जो आपाधापी की जिंदगी में मूर्त पूजा कर सकता है परन्तु मानसिक पूजा और मूर्ति के माध्यम से परम-आत्मा तक विरले ही पहुचते है। खैर बात तो अध्यात्मिक और धार्मिक मार्ग से पूजने की है। जहाँ पर आराध्यो के मंदिर ही बनाने भरी हो रहे है वहां पर परमात्मा को पाने की ज्ञान मार्ग, भक्ति मार्ग, कर्म मार्ग और हट योग की बात ही बेमानी है। 

असल में मेरा अपना मत है की हिंदुत्व में यदि कोई सबसे बड़ी कमजोरी है तो वो साधू/पुजारी/मठाधीश/आचार्य/गुरु की है। मंदिर का पुजारी, मठो के अधिकारी या अन्य कोई भी हिन्दू की भौतिक, राजनेतिक रक्षा या संघठन की बात नहीं करता। यदि धार्मिक अनुष्ठान भी है तो वो भी किस स्वार्थ वश है। हर मनुष्य अपना, अपने परिवार का, अपने घर का या ज्यादा से ज्यादा अपने खानदान के स्वार्थ का ही अनुष्ठान करता है। कितने है जो देश का, नगर का, समाज का या अन्य सामूहिक हितो का धार्मिक कर्मकांड या अनुष्ठान कराते है। मुझ से कोई भी पूछ सकता है की आप भगवान् और भक्त के बीच क्या ले रहे हो, क्यूँ इन पचड़ो में पड़ रहे हो की कोई क्या मांगता है या क्या करता है। नहीं मित्रो इस बात का हमारे भविष्य से बहुत बड़ा सम्बन्ध है। 

देश किसका - नागरिको का, नागरिक किसके - समाज के, समाज का नागरिक कानून कौन बनता है वो तो संविधान से बनता है और संविधान आपने नहीं बनाया, यह उन लोगो ने अपने हिसाब से जो ठीक लगा उसको ठूस दिया और एक पुस्तक बना दी जिसको "संविधान" कहा गया और लाखो वर्ष की सभ्यता और संकृति को कह यह दिया गया की अब जीवन इसके हिसाब से चलाओ। वहा ! कितना बड़ा छल और धोखा है। कोई भी इतनी पुरानी सभ्यता कुछ एक पिनल कोड या संविधान से नहीं बाँधी जा सकती। मुद्दा बहुत बड़ा न बन जाये अन्यथा एक ब्लॉग पोस्ट में नहीं समाएगा तो इसको ऐसे ले की "धर्मनिरपेक्षता" का जो चलन है उस से कितने हिन्दू भारतीय सहमत होंगे, परन्तु गाहे -  बघाये पिछले कुछ दशको से देश की राजनीति इसी धुरी पर चल रही है। लोगो को जबरदस्ती की घुंटी पिलाई जा रही है। जिस देश में यह नारे नहीं की "फलाने - ढिकाने भाई भाई" तो क्या वहा शांति नहीं और जब उन देशो में शांति है तो सबक तो ले लो की शांति क्यूँ है ? लोग बोलते नहीं थकते की आपको पता ही कुछ नहीं की हमारे देश में बहुलता है, विभिन्नता है, इसलिए  देश के हित में यह नारे दिए जाते है, अरे यार चीन, इंडोनेशिया जैसे देशो में जाकर देखो वो कैसे शांति बनाते है झूटे नारे नहीं गढ़ते। असल में हिन्दुओ का जब तक डराया जायेगा जब तो उसको अपनी खुद की भौतिक स्थिति का ज्ञान स्वयं नहीं होगा।

बात करते है हिन्दू संस्कृति और उसकी भूमि की। हिन्दू राष्ट्र का मतलब कोई लड़ाई नहीं है न ही किसी बंटवारे की बात की जा रही है, बात है भारत को सांकृतिक रूप से एक बनाया जाये। जब की देश तोड़क शक्ति इस भारतवर्ष को टुकडो में देखती और परिभाषित करती है और इन्तजार करती है की हिन्दू शक्ति लगातार घटती जाये। 

जैसे की नागा / मिजो और उतर भारतीय, उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय, पूर्वी भारतीय और दक्षिण भारतीय, अब देखने में तो अलग लगते है परन्तु इनको जोड़ने के लिए तथकथित बुद्धिजीवी अंग्रेजी और अन्य टोटके अजमाने को कहेते है। अगर ध्यान से देखा जाये तो नागा, मिजो, मद्रासी, मलयाली, हिंदी भाषी, कश्मीरी आदि आदि (तथाकथित क्षत्रिये और धार्मिक समूह ) तो छोड़ो, हिन्दू संस्कृति से आप भारत, चीन, जापान, कोरिया, थाईलैंड म्यांमार, इंडोनेशिया, वियतनाम, रूस, यूरोप भी जोड़ सकते हो। परन्तु आभाव है अपनी हिन्दू सस्कृति के ज्ञान का, शक्ति को संघठित और प्रतिष्ठित करने का। 

आप क्या सोचते है की हिंदुस्तान यदि इसी रूप में अगले 1000 साल भी चलेगा तो "परम वैभव" को पा लेगा? "मुर्खता की पराकाष्ठा" ऐसा सोचना भी। हिंदुस्तान में लोग कुत्ते बिल्ली की ही तरह लड़ते रहेंगे और बावले पिल्लो की तरह इसी तरह रटते और लड़ते रहेंगे की "मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना" और शांति से बैठेंगे नहीं।

मित्रो जब तक उधार की किताब, ज्ञान, संस्कृति लेकर अपना उद्धार करना चाहोगे तो "कद्दू " ही हाथ लगेगा जैसे के पिछले 65 साल से लगा है। अच्छ कुछ लोग सोचते है मैं भी तथकथित रूप से भौंडे रूप से आज की समाज में रूढियो को हिन्दू संस्कृत मान ने की गलती कर रहा हूँ या उनकी पैरवी कर रहा हूँ । नहीं मित्रो मंदिर में लड़ झगड़ कर प्रसाद चढ़ा देने से या अपने हितो के लिए भगवान् से प्रार्थना करना, घर में स्त्री को घूँघट में बैठना हिन्दू सस्कृति नहीं, मानवता ही हिन्दू सस्कृति है और उसको जीने के लिए कुछ कायदे / नियम है जिनको वेदों में शास्त्रों में परिभाषित किया गया है यह उन पुरातनपंथी विचारो से भिन्न है जो एक मध्युगीन एक किताब से बंधे है, हमारी हिन्दू संस्कृति तो सभ्य वाद विवादों और शास्थार्थ पर टिकी है और जहाँ पर माना जाता है की 'धर्म की परिभाषा देश, काल और समाज की हिसाब से बदलती रहती है।" परन्तु उसमे हमेश मानवता की विकसित सभ्यता  का गुण विद्धमान रहता है।

वास्तव में मित्रो हम अपने अरध्यो को छोड़ नेताओ के चक्कर में फंसा दिये गये है। हमारे अरध्यो को षड्यंत्रों के तहत हमारी नजरो से धीरे धीरे दूर कर दिया गया है और हमारे सामने नेता नाम का व्यक्तित्व रच दिया गया है। जैसे किताबो में, सडको पर, बिल्डिंगो पर, संस्थाओ पर और मुद्राओ तक पर। हमने धार्मिक बातो को पौराणिक मान लिए और इतिहास की सच्चाई को किताबी बातें। 

अब बात को आगे बढ़ाते है की हिन्दू संस्कृति के बीज की रक्षा क्या अर्थ है। इस भारत देश के उपवन को हिन्दू के योग्य भूमि तभी बनाया जा सकता है जब आपके हाथ में सत्ता हो। सत्ता ही नागरिक कानून का निर्माण करती है, और उस कानून के अंतर्गत ही समकालीन समाज अपने को विकसित करता है। और कानून जितने संस्कृति के नजदीक होंगे उतनी ही अनुकूलता से नागरिक देश के कानून का पालन करेंगे। 

जैसे वाद विवाद के लिए एक छोटी सी बात रखता हु जैसे भिखारी, भिक्षा मांगना आज की समाज की दृष्ठि से घृणा का कार्य है मैं भी एसा ही मानता हु, परन्तु भिक्षाटन करना तो हमरी संस्कृति का अभिन्न अंग है। हाँ वो अलग बात है की यदि आप हिन्दू संस्कृति के गहराई में जाये तो पाएंगे की विगत में भिक्षा मांगने वाले एक परिभाषित व्यक्तित्व था। भिक्षा भी योग्य व्यक्ति ही मांग सकता है। कहने का तात्पर्य इस बात से है की जब आप भारतवर्ष के नागरिको के लिए नियम बनाते समय हिन्दू संस्कृति को रीड बनाओगे तो हर बात में एकरूपता आने लगेगी और यह भारत देश यदि एक रहा है तो उसकी कसोटी "हिन्दू" धरा ही है। नहीं तो अब लोग इतने मुर्ख हो चुके की सड़क पर बेचारी गाये को आवारा गाये कहेने लगे। और कुत्तो के लिए पशु क्रूरता नियम बन गये। यह है संस्कृति की विकृति और स्वीकृति का मामला। 

लोग आज चीन से मुकाबला करने की बात करते है। अरे भैया ! चीन तो कोंफुशियाश के सिद्दांत पर चलता है तुम  नक़ल करते हो। लोग आज भी कारण खोज रहे है की 1962 में चीन से युद्ध की हार का। अरे बिलकुल सिंपल है आप "कन्फुशियाश और आर्ट ऑफ़ वार' के आगे पस्त हो गए। न नेहरु जी ने चीनियो को पढ़ा न उनके सिद्धांतो को बस अंग्रेजी से बढ़त बनाने की उतेजना में मुर्खता कर बैठे जो हमारे अर्थशाष्त्री और रक्षा विशेषयज्ञे चीन के मुकाबले के लिए आज भी यह ही कर रहे है।

आज भारत के पास दो ही शक्ति है एक 100 करोड़ लोगो की धर्म में अटूट आस्था और दूसरी संघ की शक्ति। संघ मतलब आर एस एस। परन्तु दुर्भाग्य यह है की दोनों की ही कोनेक्टविटी नहीं है। संघ भारत को राजनेतिक रूप से ज्यादा धार्मिक रूप से कम समझता है। संघ को यह समझना चाहिए की मानलो कल भारत में संघ के नेत्रित्व में राजनितिक  नियंत्रण हो भी गया तो तब क्या होगा? क्या संघ के पास भारत पर नियंत्रण करने के बाद का "ब्लू प्रिंट' है। क्या संघ भारत को भी चीन बनाना चाहता है। जो आज राजनेतिक रूप से तो सशक्त हो गए। परन्तु आगे का उसे भी नहीं पता की करना क्या है। जैसे चीन के लिए भी आगे का रास्ता अहंकार, द्वेष, विस्तारवादी निति और शोषण का है तभी वो राजनेतिक रूप से अपने को मजबूत बना रख सकता है। क्या संघ भी भारत को राजनेतिक रूप से "परम वैभव' को पाना चाहता है। कुछ लोग कहे सकते है की संघ गलत क्या कर रहा है वो तो एक सांस्कृतिक संघठन है और राजनीती और धर्म को अलग रख रहा है। मैं कहूँगा गलत है क्यूंकि कोई भी संस्कृति अपने आप में नहीं बनती उसकी जड़ धर्म से पोषण लेती है और धर्म भी क्या है कुछ मुलभुत सांस्कृतिक और अध्यात्मिक बिदुओ की एक बड़ी से गांठ है। यदि इसे आज के हिन्दू परिपेक्ष में देखे तो पाएंगे की मंदिर बनाना और उसके लिए संघर्ष करना संघ की दृष्टि से पूर्ण रूप से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के लक्ष्य को प्राप्त करना है हो सकता है परन्तु धार्मिक रूप से हिन्दुओ को छेड़ना नहीं।   

परन्तु जो श्री नरेन्द्र मोदी कर रहे है वो "एक" सोच से एक कदम आगे है। वो दलितों को ब्राह्मण बना रहे है। और जैसा की हमेशा होता है कुछ कर्मकांडी ब्राह्मण उसका विरोध भी कर रहे है और वो विरोध कुछ कुछ ऐसा ही है जैसे कांग्रेस के एजेंटो ने 90 के दशक में आरक्षण विरोध का किया था। हो सकता है मैं भी ब्राह्मण होने की वजह से आरक्षण की वजह से कुछ लाभ (व्यक्तिगत) से वंचित हो जाओ, परन्तु यह तो ध्रुव सत्य है की जब तक तथाकथित निचली जातिया ऊपर नहीं आयेगी हिंदुत्व और भारत कभी भी मजबूत नहीं होगा। हिन्दू धर्म के उपरी पदों पर किसी     डी.एन.ए. के वजह से उनकी संतानों के लिए आरक्षित नहीं किया जा सकता। बल्कि कर्म के आधार पर एक समरस समाज की रचना की जा सकती है, हिन्दू धर्म इन पूर्वाग्रहों से जितना जल्दी बहार निकले उतना ही अच्छा होगा। 

संघ को क्या करना चाहिए, मेरी राये माने तो संघ को धार्मिक लोगो के साथ वैज्ञानिक और तथ्य परख मंथन शुरू कर देना चाहिए। आज सड़क छाप लोग हिन्दू धर्म के पुस्तको में घुसपैठ कर रहे है जो मर्जी, मन मर्जी छाप कर हिन्दू मंदिरों और घरो में यह पुस्तके शोभा बढ़ा रही है। न तो इनका कोई धार्मिक आधार है और नहीं कोई इनका सन्दर्भ परन्तु हिन्दुओ को दिशाहीन आस्था की और ले जा रही है और कर्महीन बना रहे है। ढोंग, असभ्यता और अन्धविश्वाश में डूबा रहे है। 

कुछ एक ऐसे भगवानो का निर्माण करा जा रहा है जिनका न तो कोई इतिहास और न कोई पौराणिक सन्दर्भ है, इस तरह से तो हिन्दू में एक समय बाद टकराव होगा। मैं नहीं कहता की यह कार्य संघ को अपने हाथ में ले लेना चाहिए बल्कि शीर्ष स्तर पर हिन्दुओ के धार्मिक आचार्यो में सम्पर्क सूत्र का काम करके एक खाका तो बनाना चाहिए। हिन्दू वैसे ही अंध आस्था के चलते द्वापर के बाद से पिछले 5000 वर्षो से भटक ही रहा है न उसे धर्म का सच बताया जा रहा और न ही उसकी भूमि का। हिन्दू धार्मिक साहित्य पहेले मलेछ ने जलाया, फिर उनको अंग्रेजो ने दूषित किया और अब वामपंथियो ने इतिहास में विकृत कर दिया। हिन्दू धर्म के शीर्ष लोगो में अपनी झूटी शान के वजह से बड़े मुद्दों पर एक राये नहीं बन पा रही जिसका खामियाजा हिन्दुओ को दोयम दर्जे के धार्मिक गुरुओ के हाथो शोषित होकर चुकानी पड़ रही है। 

यह बहुत ही गंभीर मुद्दा है। प्रथम देश पर संघ अपने नेत्रित्व में सत्ता पर कब्ज़ा करे अर्थात पकड़ बनाये और जैसे मैंने पहेले भी विचार रखे है की उचित और अनुचित का विचार करे बिना सत्ता पर हिन्दू पकड़ बनानी होगी। उचित अनुचित से अभिप्राय मानवीय कमजोरी से ऊपर उठ कर से है। भारत राष्ट्र विधर्मियो और दुश्मनों के हाथ में हो इस से अच्छा है की देश पर हिन्दू हितो की रक्षा करने वाला हो। विपत्ति काल में उचित अनुचित का निर्णय जो करते है वो समय गवां देते है। देश पर शासन कर के ही देश को अपने विचारो में ढला जा सकता है सत्ता से दूर होने पर केवल बहकाया जा सकता है। 1947 में यदि संघ देश की मुख्यधारा में होता (कांग्रेस की तरह) तो भारत भूमि का बंटवारा न होता, सिन्धु गंगा से दूर न होती।

सत्ता के बिना क्या नरेन्द्र मोदी गढ़ा जा सकता था। क्या 40 साल की विपक्ष की राजनीति से नरेन्द्र मोदी पैदा किया जा सकता था। सत्ता से ही इतिहास रचा जाता है विपक्ष में तो सिर्फ रोया जाता है। 88 साल सत्ता से दूर रहे तो क्या पाकिस्तान और बांग्लादेश रोक लिया, नेपाल हिन्दू विहीन हो गया, अब समय है देश को गति देने की और विश्व को सात्विक नेत्रित्व देने की। 

मुद्दा यह नहीं के देश का प्रधानमंत्री कौन बने।  मुद्दा यह है की 2014 में भी यदि देश में हिन्दू राष्ट्रवादी तत्व सत्ता में नहीं आते तो देश को भ्रष्ट और विकृत होने से रोकना मुश्किल होगा। हिन्दुओ ने संघ के देखते देखते एक और राष्ट्र अपने हाथ से निकाल दिया "नेपाल". किस मुहं से संघ भी हिन्दू हितो की बात करेगा यदि उसने अब की बार भी पूरी उर्जा से देश को मनु महाराज की तरह सभी बीजो को संघठित और सुरक्षित कर देश को नेत्रित्व नहीं दिया। अभी नहीं तो कभी नहीं। क्यूंकि भारत अपने को पल पल मरते नहीं देख सकता, तू नहीं तो और सही पर "परम वैभव" तो पाना ही होगा। तो तू ही क्यूँ नहीं। 

मीडिया में हवा बनाने से कुछ नहीं होगा अभी धरातल पर बहुत काम होना बाकी है। कांग्रेस तो रक्तबीज है जहाँ भी रक्त की बूंद गिरेगी फिर कांग्रेस खड़ी हो जाएगी। इस से पार पाने के लिए सर्वस्व दाव पर लगाना  होगा। पुरे भारत वर्ष में अगले एक साल परिवर्तन की लहर चलानी होगी तब जा कर इनकी चूले हिलेंगी अन्यथा कोमुनिस्टओ का हाल भी हमारे सामने है। क्यूंकि देश किसी चीज का इन्तजार अनंत काल तक नहीं करता। कुछ होना चाहिए माँ भारती के चरणों में सर्वस्व निछावर करने के लिए। 

क्यूंकि आंधियां चलने लगी अब ज्वार को पैदा करो कंठ में क्रन्दन नहीं हुंकार को पैदा करो, सजने लगी है कुरुक्षेत्र की भूमिका पार्थ तुम गांडीव में टंकार को पैदा करो।       

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